Sunday 20 May 2012

मुंबई - श्याम जयसिंघाणी (Shyam Jaisinghani) की



‘मुंबई मुंहिंजी’ (मेरी मुंबई) से दो दर्ज़न मुंबई.. 


  'मुंबई किसकी'. साभार  Sushobhit Saktawat 


किसी ख़ास शहर, नगर, स्थान को केंद्र में रखकर कई कवियों ने रचनाएं की हैं - जेम्स जाइस (डब्लिन), बोदलिअर (पेरिस), इलियट (लंदन) और काफ़्का (प्राग)। सभी का स्थान विशेष से ख़ास लगाव, जुड़ाव, अपनापन,  शिकायतें, उलाहने हैं।

सिन्धी में इस तर्ज़ पर श्याम जयसिंघाणी के दो काव्य संग्रह हैं -  गोवा पर लिखा हुआ ‘गोवानी मंज़र’ और मुंबई पर रचा हुआ ‘मुंबई मुंहिंजी’। सोचा यह था कि ‘मुंबई मुंहिंजी’ (मेरी मुंबई) पर कुछ लिखूंगी पर जब श्याम की मुंबई की गलियों में भटकी और समुद्र किनारे बैठी; अंधेरों के व्यापार को जाना; चोर बाज़ार में तांकाझांकी की; आमने सामने खड़े गेट वे ऑफ  इंडिया और ताज को देखा; ट्राम के साथ साथ दौड़ी; लोनली क्राईस्ट के दर्द को अपने भीतर पाया किया; ईरानी रेस्तोरां की कड़क चाय का मज़ा लिया; राजकपूर, शम्मी कपूर और पृथ्वीवाला की चकाचैंध देखी; भारत की आज़ादी के बाद शरणार्थी बनकर आए सिन्धियों को मिलिट्री कैंप में मरते जीते देखा; लड़खड़ाती चॉल  में काँपती मंजि़लों का डर अपनी टांगों में रेंगता सा लगा... तो बस, वहीं रूक गई। और आखि़र में दिखा इस महानगर में अपना घर तलाशता इंसान...

कविता संग्रह की शुरूआत में है ‘कविता के आँगन में दाखि़ल होने से पहले’. उस में अंकित श्याम जयसिंघानी के शब्दों को ज्यों का त्यों रख रही हूँ,  बेशक अनुवाद के ज़रिए -

‘आधी सदी पहले कोयला ढोते, मैंने सरहद पार की
आधी सदी मैंने इस मुकद्दस ज़मीन पर गुज़ारी है
यक़ीनन इस ज़मीन ने मुझे गोद लेकर अपनाया है।

मेरे इस कविता संग्रह का पहला हिस्सा ‘मुंबई मेरी’ मेरी अक़ीदत का आईना है। पचास साल - पचास पन्नों में, एक सौ पचास हिस्सों में।

आसपास का माहौल, ज़िन्दगी,  कल्चर, मंज़र,
रवायतें, खुशबुएँ, यादों में वे साथी और वे पल!

शहर बोलते हैं, सुनते हैं, देखते हैं।

पचास साल मैंने मुंबई के गली कूचों, पेड़ों की परछाईं में लेटकर, गर्म फ़ुटपाथ पर, उदास समुद्री किनारे, सुनहरी सूरज के ढलने पर उड़ जाते रंगों को ज़हन में समेटते हुए, लोकल ट्रेन की दम घुटती भीड़ में अपनी साँसें संभालते हुए... कई अक्सों, कई अहसासों, कई साथ छोड़ते रिश्तों, साथ देते पलों के साथ वर्ज़िश करते बिताए हैं।’’

मुंबई की इन तस्वीरों पर स्याही बिखेरने के बजाय चाहा कि आप भी कुछ तस्वीरें देखें। हो सकता है, इनमें से किसी में आप भी हों... 

1. नरीमन प्वांइट
समुद्र में सरकते फिसलते पत्थरों पर
माचीसी घरों के तृषत जवान जोड़े
तीलियों की भाँति एक दूसरे से चिपके, गीले।

2. क्रॉस मैदान
तपती दुपहरी में क्रिकेट प्रैक्टिस
हर नई बॉल, जैसे ताज़ा जन्मा सपना
वाडेकर, गावस्कर, तेंदुलकर।

3. चौपाटी 
बंबई का भूतकाल अरबी समुद्र में समाया
‘क्वीन्ज़ नेकलेस’ की चमक में पिरोया वह
पृष्ठभूमि में गंदगी, मक्खियां, बदबू और कचरा।

४. गेट वे ऑफ इंडिया (समंदर से)
ताज होटल की आसमानी ऊंचाई
‘गुलीवर’ के बौने-सा दिखता गेट वे
शेख़ मुख़्तार के साथ खड़ा मुकरी जैसे।
(शेख मुख़्तार: पुरानी हिन्दी फि़ल्मों का कदावर नायक। मुकरी: छोटे क़द का लोकप्रिय के कॉमेडियन)

५. अंधेरों का व्यापार
म्यूजि़यम के सामने सुनसान अंधेरे फ़ुटपाथ
‘सदा सुहागिनों’ के खनकते कंगन
वाकई, ‘सिटी लिव्ज़ इन हर प्राॅस्टीट्यूट्स’।*
* वर्जीनिया वूल्फ़

६. चोर बाज़ार
जगमोहन, के सी डे, पंकज मलिक
रिकॉर्ड पुराने, बेशकीमती तवारीख़ी ख़ज़ाने
चुराए हुए, त्यागे हुए, लावारिस, अनमोल।

७. ग्लोरिया चर्च
फ़्लाइ ओवर से उतरती चढ़ती बस  
अक्सर बाँहें फैलाए खड़ा दिखता क्राईस्ट
एक अहसास: हाउ लोनली ही इज़।

८. ट्राम सवारी
माटुंगा से म्यूजि़यम तक एक आने की टिकट
डबल डेकर की तख़्त-ए-ताऊसी सीट
शरत बाबू का नॉवेल और मूंगफली का ऐश।

९. आखि़री ट्राम
न फूल, न हार, न चंदन, न धूप, न ही गुलाल
31 मार्च 1964, आखि़री ट्राम बोरीबंदर-दादर
राह में अंतिम यात्रा की गवाह लोगों की क़तार।

१०. ईरानी रेस्तराँ - एक 
‘साब का ब्रेन फ्राइ करो’
‘मेमसाब का आमलेट बनाओ’
‘ख़ान को कड़क चाय मारो’।

११. ईरानी रेस्तराँ - दो 
‘सिंगल  ऑमलेट, बन मस्का, कम पानी चाय’
अख़बार पढ़ा, सिगरेट पिया, लिखी कविता
बाज़ी खेली शतरंज की, पास बैठे पारसी के साथ।

१२. सदाबहार मौसम
‘राउंड दि क्लॉक,  हमारा ‘अंडर वर्ल्ड’ जागे
ज़ेर ज़मीन उजाला, सोया सिपाही, थका कुत्ता
सुपारियों की लेन-देन, हाथ बदले-सदले।
(ज़ेर ज़मीन - ज़मीन के नीचे)

१३. काला घोड़ा
अमलतास के झरते पत्ते और काँपती डालियाँ
रिदम हाउस, चेतना,  काॅपर चिमनी, वे साइड इन
आर्ट गैलरीज़, लाइब्रेरी, घोड़ा मगर गुम।

१४. कल्याण कैम्प: 1948
मरी हुई सी, कमज़ोर, बदरंग मिलिट्री कैम्प्स में
दुत्कारे हुए, भूखे, पनाहगीर भरे गए हैं जहाँ तहाँ
मुफ़्त राशन बिजली, क्लेम्स के लिए कैम्प कमांडर।

१५. जापानी बाज़ार
हर तरफ़ शोरगुल, लेनदेन का धंधा
सूरज निकले, लक्ष्मी जागे, सिक्का घूमे गोल
कि़स्मतवाली रात है, मेहनतकशों का भरे झोल।

१६. हाजी अली
बुख़ारा से आया एक पीर, हाजी
बेख़ुदी में समंदर में उतर गया
हमेशा दमकते क्षीरसागर में बदल गया।

१७. ओपेरा हाउस
न कोरस, न  ओपेरा , न ही कोरल गान
गूंगी फि़ल्म की दास्तान सुनाते सुनाते 
बूढ़ा, आखि़री सांसें, बेदम और बेआवाज़।

१८. सेनोरिटा
थिएटर सोचें, थिएटर खेलें, थिएटर ही जियें
पृथ्वीराज, शेक्सपियरवाला, जेनिफ़र, संजना
मुंबई थिएटर के जुनूनी, खट्टे-मीठे अनारदाने।

१९. शम्मी
फि़ल्मी दुनिया में एक अजब चमत्कार
मरे हुए रोमांस में एक अनोखा सैलाब
‘याहू’, बेक़ाबू, बिना किसी नक़ाब।

२०. जाने कहाँ गए वो दिन
फटा जापानी जूता, रूसी टोपी, हिन्दुस्तानी दिल
‘दाल में  काकरोच है’, जीना यहाँ मरना यहाँ
ज़िन्दगी में उसने रोमांस भरा, रोमांस में अपनी जान।



२१. तलाश 
पुराने, इस्तरी किए, सिलेटी फुल सूट में
बंद छतरी उठाए, झूमता झामता, बूढ़ा पारसी
ख़ुद ही को सुनने, आसमान से बतियाए।

२२. आदमशुमारी
तुम बस स्टॉप पर खड़े केला खा रहे हो
कौन है जो तुम्हारी शर्ट खींचता है
अधनंगा, मगर पूरा भूखा, अपना हिस्सा मांगता है।

२३. कमज़ोर चॉल 
झुकी हुई, लोगों से ठसाठस सथी 
बेशुमार स्तंभों थंभो पर खड़े कमरे
पठाखों की आवाज़ से मंजि़लें काँप जाती। 

२४. ख़ानाबदोश 
नाम है, पता है, फ़ोन नंबर भी है
पनाह के लिए छत, दीवारों वाला मकान भी है
सब कुछ है दोस्तों, सिर्फ़ घर नहीं है... 

यह है श्याम की मुंबई, सबकी मुंबई....

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी) 

Photo courtesy sindhology.org

श्याम जयसिंघानी (भारत) : 12 फ़रवरी 1937 को क्वेटा, बलूचिस्तान में जन्म। कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक। 1995 में मराठी उपन्यास ‘चानी’ पर साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार। 1998 में एकांकी संग्रह ‘जि़लजि़लो’ पर साहित्य अकादमी अवार्ड। 




10 comments:

  1. सुंदर कविताएं हैं. जापानी बाज़ार, ऑपेरा हाउस और ईरानी रेस्‍तरां के ऑब्‍ज़र्वेशंस बहुत अच्‍छे हैं. और हाजी अली की गहराई सुकूनदेह है.

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  2. बहुत अच्छी कविताएँ हैं. देखिए इतनी अच्छी कविताएँ हमें और कैसे पढ़ने को मिलतीं...

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  3. In the early morning it is very pleasing to read your blog
    it is chosen with feeling and sentiments Thanks for sharing !

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    1. आभार कांतिलाल जी.. आपकी तसवीरें भी हमें ऐसे ही तरोताज़ा कर देती हैं..

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  4. श्यामजी के साथ - साथ सफ़र करना कुछ ज्यादा ही भाया कि इस महानगर कि आपाधापी को दो दशकों से भी कहीं अधिक समय से झेल रहा हूँ और छोटे - छोटे बिम्बों के सहारे बहुत खूब कह गए श्यामजी...

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    1. हम्म.. झेलते हुए भी यह शहर छूटने नहीं देता न..
      dhanyawaqd Chitt Ranjan..

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  5. all poems are very nice ! vimmi ji your blog is such a wonderful ! thanks

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  6. शुक्रिया मुकेश पाण्डेय चन्दन जी..

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