Saturday 9 June 2012

विम्मी (Vimmi) की एक कविता

'In search of identity' bashukriya Shubnum Gill.



कितनी औरतें जीती हैं मुझमें!


अचानक एक दोपहर
धूल खाए पुराने रेडियो पर
‘वक़्त ने किया क्या हसीन सितम,
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम’ 
सुनने की इच्छा होती है.
उस  वक़्त यह गीत माँ सुन रही होती है।


आधी रात को उठकर बिना कपड़े उतारे
शावर के नीचे खड़ी हो जाती हूँ
बदन सुखाए बिना आकर लेट जाती हूँ
तब पलंग पर बुआ करवट ले रही होती है।

पंद्रह साल पुरानी लाल साड़ी 
संदूक से निकालकर उलटने-पलटने लगती हूँ
ज़िन्दगी की तरह उसको भी 
तह लगाकर वापस उसी जगह रख देती हूँ
साड़ी को निहारती
काली पड़ गई ज़री-सी वे आँखें मौसी की हैं।

लहसुन की कलियों को दरदराते हुए
दस्ता मेरे हाथ से छूट जाता है
दूर कहीं
नानी की सास की दहाड़ गूँज उठती है
वे कँपकँपाते हाथ पाँव नानी के हैं। 

अब समझ आता है मुझे 
इतने बरसों से यूँ ही बेचैन नहीं हूँ मैं
यूँ ही ऐब्नाॅर्मल नहीं दिखती सबको
किसी एक का नहीं, इतनी सारी औरतों का साया है मुझ पर।