Wednesday 30 May 2012

एक बैत 'ससुई पुन्हूं' से - शाह अब्दुललतीफ़


Sassi by Rahman Chughtai Sahab.


ससुई-पुन्हूं

     ससुई, शाह साहब को बेहद प्रिय है। ‘शाह जो रिसालो’ के तीस सुरों (राग-अध्याय) में से पाँच सुर - ससुई आबरी, माज़ूरी, देसी, कोहियारी और हुसैनी, ससुई पुन्हूं के लिए हैं।  इन सुरों से चुने हुए बैत आपको पढ़वाती रहूँगी।  ससुई के प्रेम और दर्द को जैसे शाह साहिब ने आखा है, वह लाजवाब है.   ससुई-पुन्हूं की कहानी अतिसंक्षिप्त में -

     ब्राहमण परिवार में जन्मी एक प्यारी बच्ची के पिता को जब ज्ञात होता है कि बड़ी होने पर उसका विवाह एक मुसलमान से लिखा है तो वह उसे एक संदूकची में बंद करके दरिया में बहा देता है। यह संदूकची शहर भंभोर के मुहम्मद धोबी को मिलती है जो इस प्यारी सी बच्ची को खु़दा का दिया तोहफा मान अपनी बेटी क़बूल करता है। बच्ची की सुंदरता देख उसका नाम रखा जाता है, ‘ससुई’ अर्थात् ‘शशि’ यानि ‘चाँद’। 
     केच मकरान से आए इत्र, सुगंध के युवा व्यापारी पुन्हूं की प्रेम-कस्तूरी का जादू ससुई के मन में रच-बस जाता है। ससुई को पाने के लिए पुन्हूं स्वंय को धोबी भी साबित करता है और इस तरह ससुई और पुन्हूं का ब्याह होता है। पर यह ख़बर जब पुन्हूं के पिता आरी जाम तक पहुँचती है तो वह अपने अन्य तीन बेटों को भंभोर रवाना करता है ताकि वे पुन्हूं को वापस ले आएं। 
     भंभोर पहुँचने पर उनका धामधूम से स्वागत होता है। मजलिस सजती है और उसी रात जश्न में मग्न पुन्हूं को उसके भाई ऊंट पर बिठाकर ले जाते हैं। सुबह नींद से जागी ससुई के पास जुदाई और दर्द के सिवा कुछ नहीं होता। अपने सजन पुन्हूं को फिर से पाने के लिए ससुई घर से अकेली नंगे पाँव निकल पड़ती है। बयाबान जंगल, पर्बत भटकती ससुई की वेदना और पुन्हूं को पाने की तड़प को शाह लतीफ़ ने बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। जब एक चरवाहा ससुई पर बुरी नज़र डालता है तो ससुई की अस्मत बचाने के लिए, धरती उसे अपनी गोद में समा लेती है। यह चमत्कार देख वह चरवाहा पश्चाताप करता है और ससुई की कब्र बनाकर, खुद उसका मुजाविर बन जाता है।
     अपने पिता और भाईयों से लड़-झगड़कर पुन्हूं भी ससुई की ओर ही चला आ रहा था। रास्ते में जब इस कब्र के पास रूकता है और मुजाविर से सारा घटनाक्रम जानता है तो वह भी ससुई से मिलने के लिए बिनती करता है। कहते हैं कि वही पर्बत पुन्हूं को भी स्वयं में समा लेता है और इस तरह ससुई और पुन्हूं का मिलन होता है। 

     पुन्हूं को पाने के लिए रोती, भटकती ससुई से शाह साहब कहते हैं - 

          होतु तुहिंजे हंज में, पुछीं कोहु पही ?
         वफ़ी अन्फ़स्कुम, अफ़लात्बिसुरून, सूझे करि सही 
         कहिं कान वही, होतु गोलण हट ते।


हिंदी अनुवाद :
         प्रियतम तेरे पहलू में हैं, 
         तेरे भीतर हैं, 
         और तू उनका रास्ता पूछती है!
         उनकी निशानियाँ तो तुझ में ही समाई हैं।
         ज़रा अपने मन में तो झाँक!
          पगली! भला अपने प्रिय को खोजने कोई हाट जाता है क्या?

                            - पाँचवीं दास्तान, सुर ससुई आबरी, शाह जो रिसालो
                              सिन्धी सूफ़ी कवि शाह अब्दुललतीफ़ भिटाई (1689-1752)

(अनुवाद: विम्मी सदारंगानी)


पुनश्च : यदि आप चुगताई साहब के प्रशंसक हैं तो उनकी अन्य कृतियाँ यहाँ देखें - http://www.chughtaimuseum.com/main.php

Saturday 26 May 2012

कृष्ण राही की कविता


यह कविता अनुवाद कर, कृष्ण राही जी का परिचय टाईप करने लगी तब ध्यान गया कि आज ही उनका जन्मदिन भी है...  यह कविता उन्हें याद करते.. 

वोट : कृष्ण राही


photo courtesy : Indian Institute of Sindhology, Adipur

मेरा एक वोट है।

वोट, जो मेरा है
एक हक़ है
एक आवाज़ है
एक हथियार है
एक ताक़त है
एक मिल्कियत है।
मेरे पास मेरा एक वोट है।

यह वोट
मेरा है, ऐसे
जैसे मेरा नाम
जिसका फ़ायदा 
मैं नहीं, कोई और ले सके!

यह वोट
मेरा हक़ है, 
वह, जो मुझ से नाहक़  
मेरे अन्य हक़ भी छीनता रहे!

यह वोट
मेरी आवाज़ है, 
वह जो मुझे नहीं, 
किसी और को उठानी है!

यह वोट
मेरा हथियार है,
वह, जो मुझ पर वार करे!

यह वोट
मेरी ताक़त है। 
वह, जो मुझ पर हुकुमरानी करे!

यह वोट
मेरी मिल्कियत है, 
वह, जो किसी और को देने के लिए है।

वोट देना 
एक अक्लमंद की बेवकू़फ़ी है
और वोट न देना
एक बेवकूफ़ की अक्लमंदी है।

जानता हूँ 
कि इन्सान एक ही वक़्त 
अक्लमंद और बेवक़ूफ़ नहीं हो सकता।

पर देखता हूँ कि
चुनाव के समय
इन्सान 
एक ही समय
अक्लमंद और बेवक़ूफ़ होता है।

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)

कृष्ण वछाणी ‘राही‘ (भारत): जन्म 25 मई 1932 को लाड़काणा सिन्ध - देहांत 2007 में मुंबई में। वरिष्ठ कवि-आलोचक। काव्य संग्रह ‘कुमाच’ (1969) पर 1971 में साहित्य अकादमी ईनाम परंपरागत सिन्धी काव्य रूपों के साथ नई कविता भी। राही, प्रेम और व्यंग्य के कवि हैं।


Sunday 20 May 2012

मुंबई - श्याम जयसिंघाणी (Shyam Jaisinghani) की



‘मुंबई मुंहिंजी’ (मेरी मुंबई) से दो दर्ज़न मुंबई.. 


  'मुंबई किसकी'. साभार  Sushobhit Saktawat 


किसी ख़ास शहर, नगर, स्थान को केंद्र में रखकर कई कवियों ने रचनाएं की हैं - जेम्स जाइस (डब्लिन), बोदलिअर (पेरिस), इलियट (लंदन) और काफ़्का (प्राग)। सभी का स्थान विशेष से ख़ास लगाव, जुड़ाव, अपनापन,  शिकायतें, उलाहने हैं।

सिन्धी में इस तर्ज़ पर श्याम जयसिंघाणी के दो काव्य संग्रह हैं -  गोवा पर लिखा हुआ ‘गोवानी मंज़र’ और मुंबई पर रचा हुआ ‘मुंबई मुंहिंजी’। सोचा यह था कि ‘मुंबई मुंहिंजी’ (मेरी मुंबई) पर कुछ लिखूंगी पर जब श्याम की मुंबई की गलियों में भटकी और समुद्र किनारे बैठी; अंधेरों के व्यापार को जाना; चोर बाज़ार में तांकाझांकी की; आमने सामने खड़े गेट वे ऑफ  इंडिया और ताज को देखा; ट्राम के साथ साथ दौड़ी; लोनली क्राईस्ट के दर्द को अपने भीतर पाया किया; ईरानी रेस्तोरां की कड़क चाय का मज़ा लिया; राजकपूर, शम्मी कपूर और पृथ्वीवाला की चकाचैंध देखी; भारत की आज़ादी के बाद शरणार्थी बनकर आए सिन्धियों को मिलिट्री कैंप में मरते जीते देखा; लड़खड़ाती चॉल  में काँपती मंजि़लों का डर अपनी टांगों में रेंगता सा लगा... तो बस, वहीं रूक गई। और आखि़र में दिखा इस महानगर में अपना घर तलाशता इंसान...

कविता संग्रह की शुरूआत में है ‘कविता के आँगन में दाखि़ल होने से पहले’. उस में अंकित श्याम जयसिंघानी के शब्दों को ज्यों का त्यों रख रही हूँ,  बेशक अनुवाद के ज़रिए -

‘आधी सदी पहले कोयला ढोते, मैंने सरहद पार की
आधी सदी मैंने इस मुकद्दस ज़मीन पर गुज़ारी है
यक़ीनन इस ज़मीन ने मुझे गोद लेकर अपनाया है।

मेरे इस कविता संग्रह का पहला हिस्सा ‘मुंबई मेरी’ मेरी अक़ीदत का आईना है। पचास साल - पचास पन्नों में, एक सौ पचास हिस्सों में।

आसपास का माहौल, ज़िन्दगी,  कल्चर, मंज़र,
रवायतें, खुशबुएँ, यादों में वे साथी और वे पल!

शहर बोलते हैं, सुनते हैं, देखते हैं।

पचास साल मैंने मुंबई के गली कूचों, पेड़ों की परछाईं में लेटकर, गर्म फ़ुटपाथ पर, उदास समुद्री किनारे, सुनहरी सूरज के ढलने पर उड़ जाते रंगों को ज़हन में समेटते हुए, लोकल ट्रेन की दम घुटती भीड़ में अपनी साँसें संभालते हुए... कई अक्सों, कई अहसासों, कई साथ छोड़ते रिश्तों, साथ देते पलों के साथ वर्ज़िश करते बिताए हैं।’’

मुंबई की इन तस्वीरों पर स्याही बिखेरने के बजाय चाहा कि आप भी कुछ तस्वीरें देखें। हो सकता है, इनमें से किसी में आप भी हों... 

1. नरीमन प्वांइट
समुद्र में सरकते फिसलते पत्थरों पर
माचीसी घरों के तृषत जवान जोड़े
तीलियों की भाँति एक दूसरे से चिपके, गीले।

2. क्रॉस मैदान
तपती दुपहरी में क्रिकेट प्रैक्टिस
हर नई बॉल, जैसे ताज़ा जन्मा सपना
वाडेकर, गावस्कर, तेंदुलकर।

3. चौपाटी 
बंबई का भूतकाल अरबी समुद्र में समाया
‘क्वीन्ज़ नेकलेस’ की चमक में पिरोया वह
पृष्ठभूमि में गंदगी, मक्खियां, बदबू और कचरा।

४. गेट वे ऑफ इंडिया (समंदर से)
ताज होटल की आसमानी ऊंचाई
‘गुलीवर’ के बौने-सा दिखता गेट वे
शेख़ मुख़्तार के साथ खड़ा मुकरी जैसे।
(शेख मुख़्तार: पुरानी हिन्दी फि़ल्मों का कदावर नायक। मुकरी: छोटे क़द का लोकप्रिय के कॉमेडियन)

५. अंधेरों का व्यापार
म्यूजि़यम के सामने सुनसान अंधेरे फ़ुटपाथ
‘सदा सुहागिनों’ के खनकते कंगन
वाकई, ‘सिटी लिव्ज़ इन हर प्राॅस्टीट्यूट्स’।*
* वर्जीनिया वूल्फ़

६. चोर बाज़ार
जगमोहन, के सी डे, पंकज मलिक
रिकॉर्ड पुराने, बेशकीमती तवारीख़ी ख़ज़ाने
चुराए हुए, त्यागे हुए, लावारिस, अनमोल।

७. ग्लोरिया चर्च
फ़्लाइ ओवर से उतरती चढ़ती बस  
अक्सर बाँहें फैलाए खड़ा दिखता क्राईस्ट
एक अहसास: हाउ लोनली ही इज़।

८. ट्राम सवारी
माटुंगा से म्यूजि़यम तक एक आने की टिकट
डबल डेकर की तख़्त-ए-ताऊसी सीट
शरत बाबू का नॉवेल और मूंगफली का ऐश।

९. आखि़री ट्राम
न फूल, न हार, न चंदन, न धूप, न ही गुलाल
31 मार्च 1964, आखि़री ट्राम बोरीबंदर-दादर
राह में अंतिम यात्रा की गवाह लोगों की क़तार।

१०. ईरानी रेस्तराँ - एक 
‘साब का ब्रेन फ्राइ करो’
‘मेमसाब का आमलेट बनाओ’
‘ख़ान को कड़क चाय मारो’।

११. ईरानी रेस्तराँ - दो 
‘सिंगल  ऑमलेट, बन मस्का, कम पानी चाय’
अख़बार पढ़ा, सिगरेट पिया, लिखी कविता
बाज़ी खेली शतरंज की, पास बैठे पारसी के साथ।

१२. सदाबहार मौसम
‘राउंड दि क्लॉक,  हमारा ‘अंडर वर्ल्ड’ जागे
ज़ेर ज़मीन उजाला, सोया सिपाही, थका कुत्ता
सुपारियों की लेन-देन, हाथ बदले-सदले।
(ज़ेर ज़मीन - ज़मीन के नीचे)

१३. काला घोड़ा
अमलतास के झरते पत्ते और काँपती डालियाँ
रिदम हाउस, चेतना,  काॅपर चिमनी, वे साइड इन
आर्ट गैलरीज़, लाइब्रेरी, घोड़ा मगर गुम।

१४. कल्याण कैम्प: 1948
मरी हुई सी, कमज़ोर, बदरंग मिलिट्री कैम्प्स में
दुत्कारे हुए, भूखे, पनाहगीर भरे गए हैं जहाँ तहाँ
मुफ़्त राशन बिजली, क्लेम्स के लिए कैम्प कमांडर।

१५. जापानी बाज़ार
हर तरफ़ शोरगुल, लेनदेन का धंधा
सूरज निकले, लक्ष्मी जागे, सिक्का घूमे गोल
कि़स्मतवाली रात है, मेहनतकशों का भरे झोल।

१६. हाजी अली
बुख़ारा से आया एक पीर, हाजी
बेख़ुदी में समंदर में उतर गया
हमेशा दमकते क्षीरसागर में बदल गया।

१७. ओपेरा हाउस
न कोरस, न  ओपेरा , न ही कोरल गान
गूंगी फि़ल्म की दास्तान सुनाते सुनाते 
बूढ़ा, आखि़री सांसें, बेदम और बेआवाज़।

१८. सेनोरिटा
थिएटर सोचें, थिएटर खेलें, थिएटर ही जियें
पृथ्वीराज, शेक्सपियरवाला, जेनिफ़र, संजना
मुंबई थिएटर के जुनूनी, खट्टे-मीठे अनारदाने।

१९. शम्मी
फि़ल्मी दुनिया में एक अजब चमत्कार
मरे हुए रोमांस में एक अनोखा सैलाब
‘याहू’, बेक़ाबू, बिना किसी नक़ाब।

२०. जाने कहाँ गए वो दिन
फटा जापानी जूता, रूसी टोपी, हिन्दुस्तानी दिल
‘दाल में  काकरोच है’, जीना यहाँ मरना यहाँ
ज़िन्दगी में उसने रोमांस भरा, रोमांस में अपनी जान।



२१. तलाश 
पुराने, इस्तरी किए, सिलेटी फुल सूट में
बंद छतरी उठाए, झूमता झामता, बूढ़ा पारसी
ख़ुद ही को सुनने, आसमान से बतियाए।

२२. आदमशुमारी
तुम बस स्टॉप पर खड़े केला खा रहे हो
कौन है जो तुम्हारी शर्ट खींचता है
अधनंगा, मगर पूरा भूखा, अपना हिस्सा मांगता है।

२३. कमज़ोर चॉल 
झुकी हुई, लोगों से ठसाठस सथी 
बेशुमार स्तंभों थंभो पर खड़े कमरे
पठाखों की आवाज़ से मंजि़लें काँप जाती। 

२४. ख़ानाबदोश 
नाम है, पता है, फ़ोन नंबर भी है
पनाह के लिए छत, दीवारों वाला मकान भी है
सब कुछ है दोस्तों, सिर्फ़ घर नहीं है... 

यह है श्याम की मुंबई, सबकी मुंबई....

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी) 

Photo courtesy sindhology.org

श्याम जयसिंघानी (भारत) : 12 फ़रवरी 1937 को क्वेटा, बलूचिस्तान में जन्म। कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक। 1995 में मराठी उपन्यास ‘चानी’ पर साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार। 1998 में एकांकी संग्रह ‘जि़लजि़लो’ पर साहित्य अकादमी अवार्ड। 




Thursday 17 May 2012

सूफ़ी कवि शाह अब्दुललतीफ़ भिटाई - दो प्रसंग


शाह लतीफ़ (1689-1752) की सभी तस्वीरें काल्पनिक ही हैं। अब तक उनकी सच्ची मौलिक  तस्वीर प्राप्त नहीं हो सकी है। शाह लतीफ़, मझौले क़द से कुछ लंबे होंगे,  चौड़े  कंधे, शरीर न अधिक भरा हुआ, न अधिक दुबला पतला। रंग गेहुँआ, बाल काले सुनहले से और बड़ी बड़ी काली आँखें।  


शाह लतीफ़ की कुछ और काल्पनिक तसवीरें देखने के लिए कुछ इंतज़ार करना होगा :)


1. सूआ, पालक, चूका 

सूफ़ी कवि शाह अब्दुललतीफ़ भिटाई ने एक बार अपने एक मुरीद से पूछा - ‘बाहर यह आवाज़ कैसी है?’
मुरीद ने जवाब दिया - ‘कि़बला! सब्ज़ी वाला बाकरी है।’
शाह लतीफ़ ने दूसरा सवाल किया - ‘क्या हाँक लगाता है? क्या बेच रहा है?’
मुरीद बोला - साईं, वह कहता है, ‘सूआ, पालक, चूका...’
शाह ने उत्तर दिया - ‘बिल्कुल सही कहता है वह। सूआ, पालक, चूका... जो पलक सोया (एक पल भी सोया), सो चूक गया।’



2. कुछ नहीं

किसी शाह लतीफ़ से सवाल किया - शाह साईं! आप सुन्नी हैं या शिया?’
शाह लतीफ़ ने मुस्कुराकर कहा - ‘मैं दोनों के बीच में हूँ।’
वह शख़्स आश्चर्य से बोला - ‘पर साईं! दोनों के बीच तो कुछ भी नहीं है।’
शाह लतीफ़ ने उसी मुस्कान से कहा - ‘बिल्कुल। मैं भी कुछ भी नहीं हूँ।’


Tuesday 15 May 2012

शहर से वह लौटा था... मोती प्रकाश (Moti Prakash) की ग़ज़ल




आज सुप्रसिद्ध सिन्धी कवि मोती प्रकाश का जन्म दिन है। उनके कई कविता संग्रह, रेखाचित्र और निबंध प्रकाशित हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर मोती प्रकाश ने  और कुछ न भी लिखा होता तो भी उनका एक ही गीत ‘आँधीअ में जोति जगाइण वारा सिन्धी’ उनको सिन्धी जगत में यह प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए काफ़ी था। 1947 के बाद भारत में पुनः जीवन प्रारंभ करने के कठिन दौर में इस गीत ने सिन्धी जाति को बहुत प्रेरणा और बल दिया। इस गीत को सिन्धी क़ौमी गीत का दर्जा प्राप्त है..
आज उनकी एक ग़ज़ल.. 

ग़ज़ल : मोती प्रकाश 

कई बरसों बाद दिया जला था
शहर से वह शायद घर लौटा था। 

लेकर लौह शरीर चला था घर से वह 
पिघले ज्यों मोम, धूप में वह घुला था।

मतवाला जवान निकला था गाँव से
बन बुज़ुर्ग, दुल्हन का वर लौटा था।

अपनी झोंपड़ी का अता-पता पूछा जब
बोले इस उम्र में आकर दिमाग़ फिरा था।

हर कोई हँसा था उसकी सादगी पर,
था समझदार पर पगला सा लगा था।


(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)

मोती प्रकाश (भारत): जन्म 15 मई 1931 सिन्ध के गाँव दड़ो, जि़ल ठट्टा में। कवि, निबंध लेखक, नाटककार, अदाकार। 1989 में सिन्ध के यात्रा वृतांत ‘से सभु सांढियम साह सीं’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार। 1977 से 2006 तक दुबई इंडियन हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक। वर्तमान में इंडियन इंस्टीट्यूट  ऑफ सिन्धालाजी,  आदिपुर से जुड़े हुए हैं।

मोती प्रकाश जी के विस्तृत परिचय और मेनका शिवदासानी से उनकी बातचीत का अंश पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक को क्लिक कीजिये :



Monday 14 May 2012

हर माँ की ज़बान काट दो.. वासुदेव मोही (Vasdev Mohi) की कविता


विश्व में छह हज़ार से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। एक अनुमान है कि अगली सदी तक आधी भाषाएं मृत्यु के कग़ार पर होंगी। भारत में भी कई भाषाएं घरों से, मोहल्लों से, स्कूलों से, दफ़्तरों से, हाट बाज़ारों से, ज़बानों से, दिलों से मिटती जा रही हैं। वासुदेव मोही को भी अपनी मातृभाषा के गुम होने का भय है, उसका ख़ून हो जाने का भय है... 



Poster courtesy UNESCO (The Courier, 2009. Number 2)








ख़ून

यह आम खू़न नहीं है.
आम ख़ून आसान है.
इस ख़ून के लिए
पहले हर माँ की ज़बान काट दो  
माँ की बोली का एक भी शब्द
किसी भी बच्चे के कानों में न घुले.
फिर हर पिता के आगे
अन्य अहम भाषाओं के ख़ज़ाने खोल दो
ऊंचे ओहदों की फ़हरिस्त बनाकर 
उस भाषा से जोड़ दो.
तुरंत रसूख़ चलाकर
आकाशवाणी, दूरदर्शन से
प्रसारित होने वाले इस भाषा के सभी कार्यक्रम बंद करा दो.
स्कूलों का ख़ास ध्यान रखना
भाषा का एक भी स्कूल चलना नहीं चाहिए.
विषय के तौर पर भी इस बोली को नाकारा घोषित कर दो
और किताबों का छपना ग़ैरक़ानूनी.
पूर्व प्रकाशित पुस्तकें दीमक के भरोसे न छोड़ी जाएँ.
माचिस की एक तीली अधिक ताक़तवर है.
गायक वगै़रह जुनूनी होते हैं
देखना, वे खु़श रहें
अन्य भाषाओं के गीत गाते रहें
और गाते रहें।
हाँ, इस सबके बाद तुम्हें लगेगा
कि इस भाषा का हर फ़र्द
उस ऊंट के जैसा है
जो रेगिस्तान में
फैले हुए विशाल रेगिस्तान में
अकेला है
रस्ता भूल गया है
और उसके गले की घंटी भी गुम हो गई है।

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)


वासुदेव सिधनानी ‘मोही’ (अहमदाबाद, भारत): जन्म 2 मार्च 1944 को मीरपुर ख़ास, सिन्ध में। प्रकाशित कविता संग्रह - तज़ाद 1976, सुबुह किथे आहे 1983, मणकू 1992, बर्फ़ जो ठहियल 1996, चुहिंब में कखु 2001, रेल जी पटरी मेरी (मैली) 2009. ‘बर्फ़ जो ठहियल’ पर 1999 में साहित्य अकादमी ईनाम। वर्तमान में साहित्य अकादमी की सिन्धी सलाहकार कमेटी के कन्वीनर।

Saturday 12 May 2012

सूफी कवि सचल सरमस्त (Sachal Sarmast) की एक रचना..



काफ़ी : सिन्धी सूफी कवि सचल सरमस्त 

अब्दुल वहाब (१७३९-१८२६) का नाम पड़ा 'सचल सरमस्त', उनके सच कहने, धर्म के ठेकेदारों से न डरने के कारण.. सचल जब सिर्फ १३ साल के थे, महान सूफी कवि शाह अब्दुल लतीफ़ का उनसे मिलना हुआ और देखते ही उन्होंने कहा, ''हमने जो देगची चढ़ाई है, उसका ढक्कन यह बालक उतारेगा'' अर्थात जो बातें हमने ढके छुपे ढंग से कहीं हैं, उन्हें ये ऊंची आवाज़ में कहेगा, निडर होकर.. सचल, सत्य और प्रेम के पुजारी हैं मगर उनकी पूजा पूजा, माला और मनके वाली नहीं है.. वे तो क्रांतिकारी कवि हैं, गलत परम्पराओं, धर्म के ढकोसलों के खिलाफ सख्त आवाज़ उठाने वाले.. उनका कहना है, 'मजहबों ने मनुष्य को उलझाया, अक्ल की बात करने वाला इश्क के नजदीक न पहुँच पाया'.. सचल की काफ़ियों (काव्य रूप) में अध्यात्म, श्रृंगार और प्रेम का संगम है. सचल को 'शाइर-ए-हफ्त ज़बान' कहा जाता है क्योंकि वे सात भाषाओं (सिन्धी, अरबी, सिराइकी, पंजाबी, उर्दू, पर्शियन और बलोची) में कलाम कहते थे..














मुल्ला मार न  तू , साजन देखूं या सबक़ पढ़ूँ? 
यार ने हमको 'अलिफ़' पढ़ाया,
'बे' की बात ना कर तू,
साजन देखूं या सबक़ पढ़ूँ? 
शाह दराज़न, सचल बसता,
मन का मरहम तू..
साजन देखूं या सबक़ पढ़ूँ? 
मुल्ला मार न  तू .


(सचल का कलाम, सुर तलंग)


(सिन्धी से अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)




Friday 11 May 2012

मंटो के जन्मदिन पर..



मंटो, सकीना और हेमा..









आज मंटो का सौवां जन्मदिन है.
मुझे सकीना और हेमा याद आ रही हैं.
पिछले ही हफ्ते अहमदाबाद स्टेशन पर ८-९ साल की एक बच्ची से मिलना हुआ.. मैं रेल टिकट का स्टेटस जानने के लिए कंप्यूटर स्क्रीन के सामने खड़ी थी और वह की बोर्ड पर अपना हाथ रखे हुए थी.. मैंने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा, वह भी मुस्कुराई. बोली, मैं बताऊँ? मुझे अचरज हुआ.. मैला सी फ्रॉक पहने, उलझे उलझे बालों वाली यह लड़की मुझे मेरी टिकट का स्टेटस देखकर बताएगी और वह भी कंप्यूटर पर! मैंने कहा ठीक है, मैं नंबर बोलती जाती हूँ, तुम टाइप करती जाओ.. दो-तीन बार कोशिश करने पर स्टेटस पता चल गया, टिकट कन्फ़र्म हो गया था. मुझे राहत मिली और मुझे यह ख़ुशी देकर वह भी खुश थी. मैंने नाम पूछा. उसने बताया, हेमा. मैंने कहा बड़ा ही सुन्दर नाम है तो वह शर्मा गई और हँस पड़ी. मैंने उसकी होशियारी की तारीफ़ की तो बताया कि तीसरी कक्षा में पढती है. मैंने पूछा कि यहाँ प्लेटफ़ार्म पर क्या कर रही हो. तो हाथ के इशारे से क्लोक रूम की ओर प्लेटफ़ार्म की तरफ़ इशारा करके बोली, वहां रहती हूँ. मुझे आश्चर्य हुआ. मैं तो समझी थी कि शायद यह भी मेरी तरह अपनी गाड़ी के आने का इंतज़ार कर रही है. खैर, हमने सेब के जूस से अपना गला तर किया. मेरी गाड़ी आने में कई घंटे बाकी थे, बैग तो क्लोकरूम में रख दिया था पर किताबों का एक बैग भी था . मैंने स्टाल वाले से विनती की वह मेरी किताबें अपने पास रख ले, ताकि इस बीच मैं अहमदाबाद के किसी अच्छे बुक स्टोर से हो आऊं. दुकान वाला बोला, किताबें दिखाइये. मैंने कहा ये रहा बैग, इस लड़की के पीछे. उसने कहा मगर दिखाइए तो सही कि कितना बड़ा है. मैंने हाथ से इशारा करते हेमा से कहा, बेटा थोडा इधर होना. हेमा वहां से नहीं हटी और उसने अपनी फ्रॉक ऊपर उठा दी. एक पल को मैं जैसे कुछ समझ ही नहीं पाई कि ये क्या हुआ.. फिर मैंने एकदम से उसकी फ्रॉक नीचे खींचकर ठीक की और आसपास देखा कि कहीं कोई बुरी नज़र इस बच्ची को घूर तो नहीं रही..  हेमा की इस हरकत ने मुझे सर से लेकर पैर तक हिला दिया था, ऐसी मासूम लड़की.. ऐसी मासूम हरकत जाने अनजाने में.. या कोई और भी बात थी..  मैं उस से अधिक बात नहीं कर पाई.. उसके लिए डर गई थी. फिर भी कुछ बोल नहीं पाई सिवाय इसके कि अब तुम अपने माँ पापा के पास जाओ हेमा. इधर उधर मत घूमो. वेटिंगरूम तक आना मेरे लिए भारी हो गया.. ज़हन में हेमा थी और उस पर चेहरा मंटो की सकीना (कहानी 'खोल दो')  का था, या मुझे सकीना दिख रही थी और उसका चेहरा हेमा का था..  कुछ याद नहीं, कुछ होश नहीं...  आज जन्मदिन मंटो का है और मुझे सकीना के साथ हेमा का ख़याल भी आ रहा है.. मंटो को पता है क्या कि हेमा भी सकीना ही है.. सकीनाएं अब भी हैं.. 


Thursday 10 May 2012

अर्जुन हासिद (Arjun Hasid) की कविता



ख़त: अर्जुन ‘हासिद’



                                    Jozef Israëls (1824-1911) Dutch Artist. शायद सेल्फ-पोर्ट्रेट 


यह ख़त
जो अब भीगकर भुरभुरा गया है
काग़ज़ का रंग भी उड़ गया है
और स्याही का भी
ठीक ऐसे ही जैसे मेरे अहसासों का।
आप शायद पढ़ न पाएं यह ख़त
पढ़ लेंगे तो भी समझ नहीं पाएंगे
वक्त  के साथ भाषा का मूल्य और मान भी तो बदल गया है ना!

अपनी वीरानियों का बयान किया है उसने
और मुझ पर बेवफ़ाई का इल्ज़ाम भी मढ़ा है
इस इल्ज़ाम को ज़िंदगी की आखि़री घड़ी तक 
देखने और समझने के लिए ही
संभाले हुए हूँ यह ख़त।

किसी जगह का ज़िक्र करते लिखा है उसने
कि उस जगह जब फिर से गए होगे
तो हमारी याद भी आई तो होगी?
मेरी याददाश्त में तो उस जगह की 
कोई पहचान ही नहीं है।
प्यार शायद छोटी छोटी बातों में ही 
खु़द को निहारता और परखता है।

मेरा उससे प्यार रहा भी है या नहीं,
उसने तो मुझे ऐसा ख़त लिखने के क़ाबिल समझा है!
इस ख़त का एक-एक शब्द याद है मुझे
इतनी बार पढ़ा है मैंने यह ख़त।
आज मेरे पोते के हाथ में है यह ख़त,
कहीं से हाथ लग गया होगा उसे
मैं निश्चिन्त हूँ
वह पढ़ नहीं पाएगा।

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)



अर्जुन ‘हासिद’ (भारत): जन्म 7 जनवरी 1930, कराची. हासिद साहब सिन्धी ग़ज़ल के उस्ताद शायरों में माने जाते हैं। मुख्य काव्य संग्रह - ‘पथर पथर कंडा कंडा’ 1974, ‘मेरो सिजु’ 1984, ‘मोगो’ 1992, ‘साही पटिजे’ 2006, ‘न इएं न’ 2009. ‘मेरो सिजु’ (मैला सूरज) पर साहित्य अकादमी पुरस्कार। हासिद की गज़लों की विषेषता है उनके विषय और भाषा शैली। 



अर्जुन ‘हासिद’ की तस्वीर:  http://www.encyclopediasindhiana.org से साभार 

Wednesday 9 May 2012

पुष्पा वल्लभ की कविता




कोल्हन : पुष्पा वल्लभ






प्राचीन काल की मैं कोई हस्ती हूँ .

मेरा मन 

मोहेंजोदड़ो की प्रतिमा. 

मैं ही हूँ वह नर्तकी

जिसके नृत्य करते हाथ हैं 

दो सफ़ेद उड़ते कबूतरों जैसे.


मेरी पायल की छन छन से

मंदिर की घंटियाँ जाग जायें,

आसमान में मुखड़ा दिखलाए सूरज

दुनिया में सुबह का पयाम हूँ मैं..


मैं ही लक्ष्मी, मैं ही सरस्वती 

मैं ही दुर्गा हूँ .

सच पूछें तो 

अन्याय के भूत का विनाश करने वाली

मैं ही काली हूँ.

पूजी केवल मंदिरों में जाती हूँ

बाहर तो बस रास्ते की धूल हूँ.

रात की काली चादर

और दिन का चूल्हा चौका हूँ मैं.



मैं!

सफ़ेद कपड़े, साफा,

जूते, कोट पहने हुए 

इस आदमी के पीछे पीछे 

बंधेज का घाघरा और 

गुलाबी चुनरी ओढ़े 

नंगे पैर चलती

मैं कोल्हन हूँ !


(सिन्धी से अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)

पेंटिंग 'fisher woman' के लिए स्वाति रॉय जी का आभार.  



पुष्पा वल्लभ (सिंध) :  १५ जनवरी १९६३ को थरपारकर  में जन्म. बायोमेडिकल कॉलेज, कराची के माइक्रो-बायोलाजी विभाग में व्याख्याता. सिंध के सुप्रसिद्ध लेखक और अनुवादक वलीराम वल्लभ की सुपुत्री.  प्रकाशित कविता संग्रह - 'दरी-अ खां बाहिर' (खिड़की से बाहर) १९८५ और 'बंद अखियुन में आसमान' (बंद आँखों में आसमान) २०१०.


Tuesday 8 May 2012

सुगन आहूजा (Sugan Ahuja) का सॉनेट


माँ और बेटा : सुगन आहूजा 

माँ और बेटे के प्यार के बीच पिता..  सुगन आहूजा के इस सॉनेट की लयात्मकता बनाए रखने की मैंने कोशिश की है.  









मार खाकर माँ की, बेटा एक कोने में रोता रहा
उसकी माँ को डांटकर, मैं बेटे को गया दुलारने. 
प्यार किया जैसे ही, उसने हाथ पर काट खाया
छुड़ाकर खुद को, उसी जगह बैठ लगा फिर रोने .

उसका चलन, मेरी शान में गुस्ताखी , वह सह न पाई 
जोश और गुस्से से, आकर एक चांटा उसको जड़ा.
मेरे रोकने से रुकी, झगड़ा मुझ ही से करने लगी 
माँ बेटे का यह झगड़ा, बेटा चुप देखता रहा खौफ़ज़दा.

देर से उस रात, हम सभी सोये दूर दूर अलग
कुछ आवाज़ हुई आधी रात, और मैं जाग उठा. 
सरक आया था बेटा, सोने, माँ के गले लगकर 
कि सुबकती माँ ने भी उसे कसके सीने लगा लिया.

अब मैं समझा कि माँ बेटे का अपना एक जम्हूर है
और किसी भी तीसरे का दख़ल उन्हें नामंजूर है.

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)


सुगन आहूजा (भारत) : १.१२.१९२१ को जन्मे सुगन आहूजा का जीवन सिर्फ चालीस वर्ष का (निधन फरवरी १९६० में) रहा पर इस छोटे से जीवन में उनकी क़लम खूब चली. उनका पहला कहानी संग्रह 'ऐश जी कीमत' १९६० में और दूसरा 'अरमान' १९६८ में प्रकाशित हुआ. एक ही काव्य संग्रह 'बे आग जलन था परवाना' १९६७ में छपा और एकमात्र उपन्यास 'कँवल जागी उथ्या' १९६८ में. नारायण श्याम की 'रूप माया' पर की गई उनकी विस्तृत आलोचना अब भी याद की जाती है. 


Sunday 6 May 2012

इंद्र भोजवानी की कविता


तनहा :  इंद्र भोजवानी 










१. तरक्की क्रिमिनल कोड की, सभ्यता का विकास.
२. लीडर अरेस्ट, कम्प्लीट रेस्ट.
३. शेर और बकरी साथ, बिठाये मेज़ पर बच्चे ने.
४. शब्दकोश भण्डार, नैनों की भाषा कहाँ!
५. मन को मारूँ  इक चाबुक, वह मारता हज़ार.
६. आंसुओं की कद्र हो कैसे, खारा पानी हैं.
७. आसमान की स्लेट पर, युगों से वही पाठ.
8. घर में चाँद आता नहीं, दिया ही देता साथ.
९. ज़िन्दगी का टोस्ट, अभी तो है अधपका.
१०. हर गोली की आवाज़, सुनाती है 'हे राम'.

तनहा : काव्य रूप. एक पंक्ति की कविता. दोहे की १३-११ मात्रा /  बहर वज़न पर. तनहा लिखने वालों में  इंद्र भोजवानी, हरी दिलगीर और सतीश रोहरा प्रमुख. सतीश रोहरा का तनहा संग्रह 'तनहा' प्रकाशित. 

इंद्र भोजवानी (भारत) : जन्म - कराची १९१८. देहांत - अहमदाबाद १९९२. काव्य संग्रह - पिरह बाखूं कढियूं (१९६३), बिजलियूँ थियूं बरसन (१९७०). इल्म ए अरूज़ पर भी एक पुस्तक.   


तस्वीर : 'अफगानी लड़की' बशुक्रिया नेशनल ज्योग्राफ़िक. 

Saturday 5 May 2012

हरि दरयानी 'दिलगीर' की कविता



किशिनचंद 'बेवस' और उस्ताद नवाज़ अली 'न्याज़' को अपना गुरु मानने वाले हरी दिलगीर की कविता सुखदर्सी कविता है. वे कहते हैं,  'मुझे ज़िन्दगी अच्छी लगती है..  मैं हँसते हँसते जीना चाहता हूँ. हँस हँस कर जी रहा हूँ. हँसते हँसते जीना मेरे लिए राह भी है और मंजिल भी... मैं ज़िन्दगी को उसके सुन्दर स्वरुप में देखना चाहता हूँ... हालांकि कुछ साहित्यकारों में मेरे इस नज़रिए का मजाक उड़ाया. कहा कि इस दुनिया में सिर्फ दुःख ही दुःख है, सुख कुछ गिने चुने लोगों की विरासत है.. मुझे वाद विवाद पसंद नहीं, इसलिए वाद विवाद कर भी नहीं पाता... ऐसा नहीं है कि मेरी हर कविता में आशा और उजाले की चमक है. कहीं कहीं निराशा की झलक भी है, अलबता वह झलक झीनी है. पर जो भी लिखा है, उस में सच्चाई है. बिलकुल ईमानदारी से लिखा है..''  


महफ़िल : हरि दरयानी 'दिलगीर' 














कई आते हैं मिलने मुझसे 
मेरे घर रोज़ रोज़ महफ़िल है.
मैं किसी से मिलने जाऊं 
यह मेरे लिए ज़रूरी नहीं,


मेरे घर रोज़ नाच मीरा का
भजन सूरदास के, और दोहे कबीर, 
वाल्ट विटमन, ख़लील और ख़य्याम
शाह, टैगोर और सचल 
सभी आ जाते हैं मेरे बुलावे पर,


अपने ख़यालों की ख़ुश्बू से
महका देते हैं मुझे भी..

मैं भला क्यों किसी के घर जाऊं ?


(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)

(हरि दिलगीर जी के काव्य संग्रह 'पल पल जो परलाउ' १९७७ से)


हरि दिलगीर (भारत) : जन्म १५ जून १९१६ लाड़काना, सिंध. देहांत ११ अप्रैल २००४ आदिपुर, भारत. लगभग बीस काव्य संग्रह प्रकाशित. 'पल पल जो पर्लाऊ' पर १९७९ में साहित्य अकादमी अवार्ड. 'सीकिंग द बिलवेड' (शाह जो रिसालो) पर अंजू माखीजा के साथ २०११ का साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार.


Wednesday 2 May 2012

सतीश रोहरा की कविता


गीता,  कुरान और बाइबल : सतीश रोहरा 

















गीता

मुझे पसंद है

क्योंकि गीता 

अपनों को मारना धर्म समझती है

(और ऐसा बहाना तलाशना कठिन नहीं है

जिस से किसी को अन्यायी कहा जा सके!)


मुझे कुरान पसंद है

कुरान

चार पत्नियों की इजाज़त देता है 

और आज का क़ानून 

एक से आगे बढ़ने नहीं देता

(वैसे रखी एक से अधिक जा सकती हैं)


मुझे बाइबल भी पसंद है

बाइबल 

अपमान करने वाले को 

माफ़ करने की सलाह देती है

(इस तरह 'बॉस' द्वारा की गई

बेईज्ज़ती बर्दाश्त करते हुए मुस्कुराया जा सकता है)


गीता मैंने अपने दायें हाथ में रखी है

चोट दायें हाथ से पहुंचाई जाती है.


कुरान मैंने अपने बायें हाथ में रखी है

पत्नि को बाईं ओर बिठाया जाता है.


बाइबल मेरे झुके हुए सिर पर रखी हुई है 

नौकर का फ़र्ज़ सिर झुकाकर खड़े रहना है.


(सिन्धी से अनुवाद : विम्मी सदारंगानी) 


सतीश रोहरा (भारत) : जन्म - १५ अगस्त १९२९. लेखक, भाषाविद और आलोचक. २००४ में 'कविता खां कविता ताईं' (कविता से कविता तक) पर साहित्य अकादमी पुरूस्कार .