Monday 14 May 2012

हर माँ की ज़बान काट दो.. वासुदेव मोही (Vasdev Mohi) की कविता


विश्व में छह हज़ार से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। एक अनुमान है कि अगली सदी तक आधी भाषाएं मृत्यु के कग़ार पर होंगी। भारत में भी कई भाषाएं घरों से, मोहल्लों से, स्कूलों से, दफ़्तरों से, हाट बाज़ारों से, ज़बानों से, दिलों से मिटती जा रही हैं। वासुदेव मोही को भी अपनी मातृभाषा के गुम होने का भय है, उसका ख़ून हो जाने का भय है... 



Poster courtesy UNESCO (The Courier, 2009. Number 2)








ख़ून

यह आम खू़न नहीं है.
आम ख़ून आसान है.
इस ख़ून के लिए
पहले हर माँ की ज़बान काट दो  
माँ की बोली का एक भी शब्द
किसी भी बच्चे के कानों में न घुले.
फिर हर पिता के आगे
अन्य अहम भाषाओं के ख़ज़ाने खोल दो
ऊंचे ओहदों की फ़हरिस्त बनाकर 
उस भाषा से जोड़ दो.
तुरंत रसूख़ चलाकर
आकाशवाणी, दूरदर्शन से
प्रसारित होने वाले इस भाषा के सभी कार्यक्रम बंद करा दो.
स्कूलों का ख़ास ध्यान रखना
भाषा का एक भी स्कूल चलना नहीं चाहिए.
विषय के तौर पर भी इस बोली को नाकारा घोषित कर दो
और किताबों का छपना ग़ैरक़ानूनी.
पूर्व प्रकाशित पुस्तकें दीमक के भरोसे न छोड़ी जाएँ.
माचिस की एक तीली अधिक ताक़तवर है.
गायक वगै़रह जुनूनी होते हैं
देखना, वे खु़श रहें
अन्य भाषाओं के गीत गाते रहें
और गाते रहें।
हाँ, इस सबके बाद तुम्हें लगेगा
कि इस भाषा का हर फ़र्द
उस ऊंट के जैसा है
जो रेगिस्तान में
फैले हुए विशाल रेगिस्तान में
अकेला है
रस्ता भूल गया है
और उसके गले की घंटी भी गुम हो गई है।

(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)


वासुदेव सिधनानी ‘मोही’ (अहमदाबाद, भारत): जन्म 2 मार्च 1944 को मीरपुर ख़ास, सिन्ध में। प्रकाशित कविता संग्रह - तज़ाद 1976, सुबुह किथे आहे 1983, मणकू 1992, बर्फ़ जो ठहियल 1996, चुहिंब में कखु 2001, रेल जी पटरी मेरी (मैली) 2009. ‘बर्फ़ जो ठहियल’ पर 1999 में साहित्य अकादमी ईनाम। वर्तमान में साहित्य अकादमी की सिन्धी सलाहकार कमेटी के कन्वीनर।

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