Wednesday 30 May 2012

एक बैत 'ससुई पुन्हूं' से - शाह अब्दुललतीफ़


Sassi by Rahman Chughtai Sahab.


ससुई-पुन्हूं

     ससुई, शाह साहब को बेहद प्रिय है। ‘शाह जो रिसालो’ के तीस सुरों (राग-अध्याय) में से पाँच सुर - ससुई आबरी, माज़ूरी, देसी, कोहियारी और हुसैनी, ससुई पुन्हूं के लिए हैं।  इन सुरों से चुने हुए बैत आपको पढ़वाती रहूँगी।  ससुई के प्रेम और दर्द को जैसे शाह साहिब ने आखा है, वह लाजवाब है.   ससुई-पुन्हूं की कहानी अतिसंक्षिप्त में -

     ब्राहमण परिवार में जन्मी एक प्यारी बच्ची के पिता को जब ज्ञात होता है कि बड़ी होने पर उसका विवाह एक मुसलमान से लिखा है तो वह उसे एक संदूकची में बंद करके दरिया में बहा देता है। यह संदूकची शहर भंभोर के मुहम्मद धोबी को मिलती है जो इस प्यारी सी बच्ची को खु़दा का दिया तोहफा मान अपनी बेटी क़बूल करता है। बच्ची की सुंदरता देख उसका नाम रखा जाता है, ‘ससुई’ अर्थात् ‘शशि’ यानि ‘चाँद’। 
     केच मकरान से आए इत्र, सुगंध के युवा व्यापारी पुन्हूं की प्रेम-कस्तूरी का जादू ससुई के मन में रच-बस जाता है। ससुई को पाने के लिए पुन्हूं स्वंय को धोबी भी साबित करता है और इस तरह ससुई और पुन्हूं का ब्याह होता है। पर यह ख़बर जब पुन्हूं के पिता आरी जाम तक पहुँचती है तो वह अपने अन्य तीन बेटों को भंभोर रवाना करता है ताकि वे पुन्हूं को वापस ले आएं। 
     भंभोर पहुँचने पर उनका धामधूम से स्वागत होता है। मजलिस सजती है और उसी रात जश्न में मग्न पुन्हूं को उसके भाई ऊंट पर बिठाकर ले जाते हैं। सुबह नींद से जागी ससुई के पास जुदाई और दर्द के सिवा कुछ नहीं होता। अपने सजन पुन्हूं को फिर से पाने के लिए ससुई घर से अकेली नंगे पाँव निकल पड़ती है। बयाबान जंगल, पर्बत भटकती ससुई की वेदना और पुन्हूं को पाने की तड़प को शाह लतीफ़ ने बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। जब एक चरवाहा ससुई पर बुरी नज़र डालता है तो ससुई की अस्मत बचाने के लिए, धरती उसे अपनी गोद में समा लेती है। यह चमत्कार देख वह चरवाहा पश्चाताप करता है और ससुई की कब्र बनाकर, खुद उसका मुजाविर बन जाता है।
     अपने पिता और भाईयों से लड़-झगड़कर पुन्हूं भी ससुई की ओर ही चला आ रहा था। रास्ते में जब इस कब्र के पास रूकता है और मुजाविर से सारा घटनाक्रम जानता है तो वह भी ससुई से मिलने के लिए बिनती करता है। कहते हैं कि वही पर्बत पुन्हूं को भी स्वयं में समा लेता है और इस तरह ससुई और पुन्हूं का मिलन होता है। 

     पुन्हूं को पाने के लिए रोती, भटकती ससुई से शाह साहब कहते हैं - 

          होतु तुहिंजे हंज में, पुछीं कोहु पही ?
         वफ़ी अन्फ़स्कुम, अफ़लात्बिसुरून, सूझे करि सही 
         कहिं कान वही, होतु गोलण हट ते।


हिंदी अनुवाद :
         प्रियतम तेरे पहलू में हैं, 
         तेरे भीतर हैं, 
         और तू उनका रास्ता पूछती है!
         उनकी निशानियाँ तो तुझ में ही समाई हैं।
         ज़रा अपने मन में तो झाँक!
          पगली! भला अपने प्रिय को खोजने कोई हाट जाता है क्या?

                            - पाँचवीं दास्तान, सुर ससुई आबरी, शाह जो रिसालो
                              सिन्धी सूफ़ी कवि शाह अब्दुललतीफ़ भिटाई (1689-1752)

(अनुवाद: विम्मी सदारंगानी)


पुनश्च : यदि आप चुगताई साहब के प्रशंसक हैं तो उनकी अन्य कृतियाँ यहाँ देखें - http://www.chughtaimuseum.com/main.php

2 comments:

  1. विम्मी सुबह सुबह यह दास्तान पढकर बहुत अच्छा लगा.हीर राँझा भी इनकी तरह जमीन में समां गये थे और सीता माता भी.अनुवाद भी बहुत सहज भाषा में किया गया है.

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  2. शुक्रिया सरिता.. देर तक सुर ससुई पढ़ती रही थी.. सीता से मुझे मारुई याद आ गई..

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