Monday 2 July 2012

बहुत दिनों बाद.. गुनो सामताणी (Guno Samtaney) की कहानी 'प्रतिध्वनि'



सिन्धी कहानी और गुनो सामताणी

1947 के बाद सिन्धी जाति की तरह सिन्धी साहित्य भी एक कड़ी से दूर होकर दूसरी कड़ी से जुड़ा। उस पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव भी हुए, विभिन्न विचारधाराओं और वादों का प्रभाव भी हुआ। उत्तर-विभाजन स्थितियों का असर काफ़ी गहरा और तेज़ था। विभाजन दर्द में डूबी और फिर प्रगतिवाद की धारा में अटकी सिन्धी कहानी को लाल पुष्प, मोहन कल्पना और गुनो सामताणी (जिन्हें सिन्धी साहित्य जगत ने ‘त्रिमूर्ति’ नाम दिया) ने ‘शख़्स’ की तलाश  में लगाया और वह, नई कलात्माकता को छूने के क़ाबिल हुई। गुनो सामताणी, सिन्धी कहानी को सशक्त  करने वाला ऐसा नाम, जिसके बिना सिन्धी कहानी अधूरी होती। गुने की रचनाओं की संख्या अधिक नहीं है पर उनकी छाप बहुत गहरी है। उन्हें अपने पहले ही कहानी संग्रह ‘अपराजिता’ पर 1972 में साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ। 
लेखक आलोचक हरीश वासवाणी के अनुसार, गुनो सामताणी वह कहानीकार है जिसने सिन्धी कहानी की  'संस्कारशीलता' में अपना योगदान दिया...  इस विवाद का महत्व नहीं है कि गुनो क्लासिकल या रोमानी  लेखक है या जदीद । मुसीबत यह है कि गुने का कलाकार, उसके कहानीकार पर हावी है। प्रभावशाली शब्दचित्र, सूक्ष्म दृष्टि, फि़क्र, भीतर तक छू जाने वाली और स्पंदित करती मंज़रकशी, सचेत शब्दबोध और ‘एक्ज़ीक्यूशन’ की महारत गुने की खू़बियाँ हैं। गुने ने सिन्धी कहानी को 'पौलिश्ड‘ ‘जेंटलमैन’ चेहरा दिया है। 


गुनो सामताणी की कहानियों में से मेरी प्रिय कहानी है ‘पड़ाडो’ अर्थात् ‘प्रतिध्वनि’। क्या होता है जब भारत विभाजन - भारत की स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद सिन्ध से आई सलमा, भारत में बस चुके ‘साईं’ से मिलती है... कहानी के बारे के कुछ कहने के बजाय बेहतर होगा कि आप स्वंय यह कहानी पढ़ें। 


प्रतिध्वनि

- गुनो सामताणी

बहुत अधिक ठंड थी। कोहरा, पेड़ों की डालियों में मकड़ी के जाले सा अटका था। सर्दी की सुबह की धूप, उस जाले में अटककर स्वंय को छुड़ाने की कोशिश में तड़पकर, थककर, ज़मीन पर आ पड़ी थी। हुमायूँ के मक़बरे का तेज फीका पड़ गया था। यों लग रहा था मानो मक़बरा, ठंड से बचने के लिए खु़द में ही सिकुड़ गया हो। टूरिस्ट काफ़ी संख्या में थे। पर फिर भी, वायुमंडल में अलग अलग भाषाओं की आवाज़ें होते हुए भी, भाती-सी ख़ामोशी थी। मक़बरा देखने का समय बहुत कम था, सो टूरिस्टों के क़दम तेज़ तेज़ भाग रहे थे। कैमेरा ‘क्लिक’ की आवाज़ से अपने अस्तित्व के होने का संकेत देकर, ख़ामोश हो जा रहे थे। देखते ही देखते टूरिस्टों के समूह बन गए। कुछ बाहर, दूर जमुना को निहार रहे थे, कुछ मक़बरे के दरवाज़े और गुंबद की बुलंदी का अंदाज़ा लगा रहे थे, कुछ गाईड द्वारा न जाने कितनी बार दोहराए हुए, अंको और तथ्यों का लेक्चर सुनते, देखते, कुछ हल्का आश्चर्य अभिव्यक्त कर रहे थे।
अचानक! जोर से, बहुत अचानक! काफ़ी ज़ोर से, एक औरताना आवाज़ ‘हा.... आ... हा... आ...’ गूँज उठी। आवाज़, अपनी गर्मी से, जम चुकी सर्दी को पिघलाते हुए, ऊपर, ऊपर गुंबद से टकराकर, वापस नीचे शहंशाह की क़ब्र से ठोकर खाकर, दीवारों से फिसलती, एक प्रतिध्वनि बनकर, गूँज उठी. हा... आ... हा... आ... आ...
यों वैसे, हुमायूँ के मक़बरे के भीतर किसी का आवाज़ करना, प्रतिध्वनि का गूँजना, सैलानियों के लिए एक अहम अनुभव में शामिल है। पर उस वक्त , शीत, जमे हुए वातावरण में, गंभीर अंकों-तथ्यों के बीच, उस आवाज़ और उस आवाज़ से हुई प्रतिध्वनि ने लोगों को चौंका दिया। कुछ का चौंकना, मुस्कराहट में बदल गया; कुछ की भृकुटियां तन गईं, कुछ के चेहरों पर आश्चर्य  चिन्ह था। पर्यटकों की आँखें हमारी ओर उठ गईं थीं - और सलमा, कुछ झेंपकर, सहमकर, उलझकर, झेंप और उलझन को भगाने के लिए ज़ोर से हँस पड़ी। हँसी की एक न टाली जा सकने वाली प्रतिध्वनि... मैं संकोच से सिकुड़ गया जैसे सलमा की इस हरक़त के लिए मैं जिम्मेदार था, जैसे इस आवाज़ के कारण, उसकी हँसी के कारण हुई प्रतिध्वनि के शोर से, शहंशाह  की नींद में ख़लल पड़ने और उनके जाग जाने का ख़तरा हो। और फिर सैलानियों की इल्ज़ामी निगाहें - मैं सलमा को बाँह से पकड़कर, खींचता हुआ जल्दी बाहर निकल आया।
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‘तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था’
‘पर साईं, गुंबद के नीचे प्रतिध्वनि तो हर कोई सुनना चाहता है’
‘फिर भी... तुम बच्ची तो नहीं हो। और इसके अलावा...’
‘इसके अलावा? क्या?’
‘इतने सारे लोग हैं, कई तो विदेशी भी हैं। क्या सोचते होंगे कि यह सिन्धी...’
मैंने बात आधे में ही छोड़ दी। दरअसल बात पूरी हो चुकी थी। देशी-विदेशी अनेक जातियों के अनेक लोग और उनके बीच हम दो सिन्धी - एक सिन्ध से यहाँ घूमने आई हुई, और दूसरा मैं दिल्ली के ‘नगर’ में ‘बसा हुआ’ सिन्धी - तुलना तो स्वाभाविक ही थी। और इस तुलना में, तुलना के आखिरी नतीजे में, हम सिन्धी कहाँ टिकेंगे ?
सलमा का चेहरा सख़्त हो गया। एक पल के लिए उसके चेहरे की सभी रेखाएं, जिनमें उसकी हल्की और अचानक से हँसी में बदल जाने वाली मुस्कान भी शामिल थी, जम गईं।
उसने धीरे से कहा, ‘ओह, आइ एम सॉरी, साईं’
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इस ‘साईं’ खि़ताब की भी एक दास्तान है।
लगातार चार बच्चों की असमय मृत्यु के बाद मेरे पैदा होने पर, मेरी लंबी उम्र के लिए परिवार वालों ने पाठ पूजा रखवाई थी। ब्राह्मण ने दक्षिणा लेने के बाद कहा था, ‘आप बहुत खुशनसीब  हैं, हमारे गुरू ने आपके घर जन्म लिया है।’ इससे अधिक और आशीर्वाद क्या हो सकता था। 
बस, तब से मेरा नाम ‘गुरू’ पड़ गया। मेरा असली नाम तो जैसे सभी भूल गए।
मेरे पिता के बहुत गहरे दोस्त थे नूर मुहम्मद शाह। दोनों घरों में काफ़ी नज़दीकी रिश्ता था। मैं अपने घर में ‘गुरू’ बुलाया जाता था पर शाह साहब के घर न जाने कैसे यह ‘गुरू’ बदलकर ‘साईं’ हो गया।
और उन्हीं शाह साहब की बेटी थी सलमा।
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वैसे, प्रतिध्वनि, फि़जि़क्स और साउंड के नियमों पर आधारित है पर मेरे लिए यह प्रारंभ से ही बहुत उत्सुकता और विस्मय का कारण रही है। प्रतिध्वनि का फैलना, सिमटना, अपनी ‘असली’ आवाज़ को ढूँढना, समय की सीमाओं से परे जाकर गूँज में बदलना - मानो आवाज़ के अनदेखे आईने में प्रतिबिंब है - प्रतिध्वनि।
आज मुझे याद नहीं कि पहली पहली बार मैंने प्रतिध्वनि को कब ‘डिस्कवर’ किया था।
बिल्कुल छोटा-सा था, पाँच छह साल का जब हमने हैदराबाद में म्युनिसिपल चढ़ाई पर नया घर लिया था। वह घर देखने के लिए जब मेरे पिताजी मुझे भी अपने साथ ले गए थे तब शायद उस बंद, ख़ाली मकान में मैंने पहली बार प्रतिध्वनि सुनी थी। इस अचानक, नई ‘डिस्कवरी’ की प्रसन्नता में मैंने बार बार चिल्ला चिल्लाकर प्रतिध्वनि सुनी थी, तालियाँ बजाईं थीं।
उसके बाद प्रतिध्वनि के मैंने अलग अलग रूप देखे, सुने हैं। पुराने गेस्ट हाऊसों में, बुलंद गुंबदों के नीचे, पहाड़ों पर - माथेरान में ‘एको प्वाइंट’ पर एक दफ़ा मैंने पटाखे जलाकर उसकी प्रतिध्वनि सुनी थी, आवाज़ों का जलते देखा था - और एक दिन ताजमहल में - लगातार सोलह सेकंड तक खिंचकर, छितर जाने वाली प्रतिध्वनि का हुस्न और पहेली - ताजमहल में मैंने देखी, सुनी, महसूस की थी।
और हाँ, हैदराबाद में मीरों के क़ुबे!
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‘तुमने मीरों के क़ुबे’ देखे हैं?’
‘कमाल का सवाल है साईं! हमारा तो रोज़ का रास्ता है वह।’
‘वहाँ अब भी ततैया हैं?’
‘ततैया!? स्कूल से दो-एक बार भागकर, मैं मीरों के क़ुबे देखने गया था। वहाँ ततैया के छत्ते हुआ करते थे। दोनों बार मैंने डंक खाए थे। फिर कभी नहीं गया। मैंने मीरों के कु़बों में कभी प्रतिध्वनि नहीं सुनी।’
मेरे आखि़री वाक्य बोलने से पहले ही वह ठहाका लगाकर हँस पड़ी। हुमायूँ के मक़बरे के शाही दालान में सुस्ताती धूप में उसकी हँसी से कुछ गर्मी, कुछ रोशनी भर गई।
‘मीरों के मकबरों पर ताज़े खुशबूदार फूल चढ़ाए जाते हैं। ततैया अवश्य होंगे वहां। पर तुम्हें ततैया के डंक का दुख है या कु़बों में प्रतिध्वनि न सुन पाने का रंज?’
‘प्रतिध्वनि’।
‘अल्लाह! फिर भी तुम मुझ पर चिल्ला पड़े थे, साईं!’
‘वह तो... ’
‘पर मीरों के कुबों में होने वाले अनुनाद में हुमायूँ के मक़बरे या ताजमहल में होने वाले अनुनाद सा न विस्तार है, न गूँज।’
‘कहाँ मुग़ल बादशाह और कहाँ सिन्धी मीर! फ़र्क तो पड़ेगा ही ना... ’
मेरे ऐसा कहते ही एक बार फिर सलमा के चेहरे पर सब कुछ जम गया। उसकी निगाह, पेशानी पर बालों की झूलती लट की हरक़त, मुस्कान का हँसी में बदल जाने का सिलसिला, सब कुछ थम गया। फिर वही धीमी, हल्की आवाज़: ‘पर साईं, मीरों के कुबों पर हमेशा ताज़े खुशबूदार फूल होते हैं। देखो तो, यहाँ तो एक भी ततैया नहीं है!’
++

‘साईं, अंदर चलें?’
‘चलो’
भीतर एक विदेशी टोली को गाईड कुछ बता रहा था। किसी ने गाईड का ध्यान दीवार पर की गई कैलिग्राफि़कल नक्काशी की ओर खींचते पूछा, ‘यह कौन सी भाषा है?’
गाईड ने जवाब दिया, ‘पर्शियन’ 
‘हुमायूँ की भाषा?!’
‘यस सर’
‘डू यू नो पर्शियन?’
‘नो सर’
‘ऐनी बडी हियर?’
सलमा को पता नहीं क्या मज़ाक़ सूझा। बोली, ‘हुमायूँ तो सिन्धी था।’
बेचारा विदेशी उलझन में पड़ गया। कभी गाईड को देखता और कभी सलमा को। ‘सिन्धी!?’
सलमा ने कहा ‘ओ यस! सिन्धी!’
‘डू यू नो सिन्धी?’
‘ओह यस’
‘वुड यू माईंड स्पीकिंग ए सेन्टेन्स ऑर टू इन सिन्धी?’ 
'नॉट ऐट ऑल! हियर यू गो...’
बातचीत कुछ ऐसी गंभीरता और तेज़ी से आगे बढ़ चुकी थी कि मज़ाक़ कब हक़ीक़त में बदल गया, पता ही नहीं चला। गाईड अपने पेशे और ज्ञान की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त न कर सका। भड़क उठा, ‘लेडी! दिस इज़ टू मच! हुमायूँ और सिन्धी! एक टूरिस्ट को ग़लत तथ्य कैसे बता सकती हैं आप! यह एक ग़ैरजि़म्मेदाराना हरक़त है!’
सलमा कुछ कहे, इससे पहले मैं आगे बढ़ आया और सलमा को बाँह से खींचते हुए कहा, ‘प्लीज़ सलमा...’
और एक बार फिर मानो किसी जादू के असर से उसके चेहरे के सभी ख़त-औ-ख़ाल पत्थर में तराशे से हो गए, अपनी सारी गर्माइश और हर जुम्बिश खो बैठे। फिर वही शांत सी आवाज़... उस विदेशी की ओर देखते हुए, मानो आखि़री इल्तजा हो - ‘बिलीव मी। हुमायूँ सिन्धी हो, पनाह वरितल सिन्धी ऐं मुग़लेआज़म बादशाह अकबर बि सिन्धी हो।’ (विश्वास कीजिए, हुमायूँ सिन्धी था, पनाहगीर सिन्धी और मुग़लगआज़म बादशाह अकबर भी सिन्धी था) एक सेकंड विराम... ‘सिन्धी बाय बर्थ!’
विदेशी कुछ भी न समझते हुए, उलझा उलझा, हल्का मुस्कराते यहाँ वहाँ देखने लगा।
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‘साईं, अंदर चलें?’
‘चलो’
भीतर एक विदेशी टोली को गाईड कुछ बता रहा था। किसी ने गाईड का ध्यान दीवार पर की गई कैलिग्राफि़कल नक्काशी की ओर खींचते पूछा, ‘यह कौन सी भाषा है?’
गाईड ने जवाब दिया, ‘पर्शियन’ 
‘हुमायूँ की भाषा?!’
‘यस सर’
‘डू यू नो पर्शियन?’
‘नो सर’
‘ऐनी बडी हियर?’
सलमा को पता नहीं क्या मज़ाक़ सूझा। बोली, ‘हुमायूँ तो सिन्धी था।’
बेचारा विदेशी उलझन में पड़ गया। कभी गाईड को देखता और कभी सलमा को। ‘सिन्धी!?’
सलमा ने कहा ‘ओ यस! सिन्धी!’
‘डू यू नो सिन्धी?’
‘ओह यस’
‘वुड यू माईंड स्पीकिंग ए सेन्टेन्स ऑर टू इन सिन्धी?’ 
'नॉट ऐट ऑल! हियर यू गो...’
बातचीत कुछ ऐसी गंभीरता और तेज़ी से आगे बढ़ चुकी थी कि मज़ाक़ कब हक़ीक़त में बदल गया, पता ही नहीं चला। गाईड अपने पेशे और ज्ञान की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त न कर सका। भड़क उठा, ‘लेडी! दिस इज़ टू मच! हुमायूँ और सिन्धी! एक टूरिस्ट को ग़लत तथ्य कैसे बता सकती हैं आप! यह एक ग़ैरजि़म्मेदाराना हरक़त है!’
सलमा कुछ कहे, इससे पहले मैं आगे बढ़ आया और सलमा को बाँह से खींचते हुए कहा, ‘प्लीज़ सलमा...’
और एक बार फिर मानो किसी जादू के असर से उसके चेहरे के सभी ख़त-औ-ख़ाल पत्थर में तराशे से हो गए, अपनी सारी गर्माइश और हर जुम्बिश खो बैठे। फिर वही शांत सी आवाज़... उस विदेशी की ओर देखते हुए, मानो आखि़री इल्तजा हो - ‘बिलीव मी। हुमायूँ सिन्धी हो, पनाह वरितल सिन्धी ऐं मुग़लेआज़म बादशाह अकबर बि सिन्धी हो।’ (विश्वास कीजिए, हुमायूँ सिन्धी था, पनाहगीर सिन्धी और मुग़लगआज़म बादशाह अकबर भी सिन्धी था) एक सेकंड विराम... ‘सिन्धी बाय बर्थ!’
विदेशी कुछ भी न समझते हुए, उलझा उलझा, हल्का मुस्कराते यहाँ वहाँ देखने लगा।
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‘साईं, चलें?’
‘हाँ’
आखि़री सीढ़ी के पास हम दोनों के जूते चप्पल रखे थे। मैं वहीं सीढ़ी पर बैठ जुराब पहनने लगा। मेरा दूसरा नंगा पैर ज़मीन पर ही था। सलमा अब तक नंगे पैर खड़ी थी। अचानक उसने अपने पैर की हल्की ठोकर से मेरा जूता दूर कर दिया और अपना एक पाँव, मेरे नंगे पाँव पर धर दिया। चैंककर मैंने उसकी ओर देखा। पर उसी क्षण - उसके पाँव के हल्के स्पर्श, दबाव ने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया। उसके पाँव पर हल्की लाल मिट्टी की परत लिपटी हुई थी पर हाथ से थोड़ी खींचकर ऊंची की हुई सलवार, उसके टखने से कुछ ऊपर का हिस्सा नुमायां कर रही थी, जो हुमायूँ के मक़बरे के लाल रंग का नहीं था! ताजमहल सा था - संगमरमर की सफ़ेदी और नूर। शीत और उष्ण। इसी बीच विजयी उत्साह से हँसती हुई सलमा बोली -
‘क्या सोच रहे हो साईं?’
‘अरे बाबा, कुछ नहीं।’
उसने पाँव की तरफ़ इशारा किया। ‘इसका मतलब जानते हो ना?’
‘नहीं।’
‘कमाल हो तुम भी! अपनी शादी की रीति-रस्मों से भी अनजान हो!’
‘शादी की रस्म!’
‘आप लोगों में शादी में ऐसा होता है। फेंरों के बाद दूल्हे का जूता ग़ायब कर देना, दूल्हा दुल्हन का एक साथ एक थाल में पाँव रखना और यह विश्वास कि जिसका पैर ऊपर होगा, घर पर उसी का हुक्म चलेगा।’
‘नहीं, मैं तो यह सब नहीं जानता। मेरे विवाह में ऐसा कुछ नहीं हुआ था।’
‘उसने धीमे धीमे अपना पैर हटा लिया। एक पल रूकी रही। फिर मेरे पास ही आखि़री पायदान पर बैठ गई। 
‘अच्छा, किसी ने ‘लाडे’ (ब्याह के गीत) गाए थे, तुम्हारी शादी में?’
‘नहीं’
‘अच्छा... घर में हुक्म किसका चलता है?’
मैं हँस पड़ा। कहा, ‘छोड़ो घर को, फि़लहाल तो तुम्हारा पैर था, मेरे पैर पर। चलाओ हुक्म।’
उस की आँखों के तारे, तारों का नूर, नूर की निगाह, निगाह के रिश्ते-नाते सब सर्द हो गए।
‘मेरा हुक्म चले न साईं, तो मैं तुम्हें ततैया से डंकवाऊं।’
इस आकस्मिक चोट का दर्द छुपाने के लिए मैं हँस दिया। बोला, ‘ततैया की क्या ज़रूरत है? तुम काफ़ी नहीं क्या?’
वह उसी धुन में कहती रही, ‘उसके लिए असली फूल चाहिए होते हैं।’
‘पर सलमा, इतिहास मुझसे अधिक बलवान है।’
‘ऐसा! तो फिर... भला...’
बात को आधे में छोड़ उसने अपने पर्स से टूरिज़्म डिपार्टमेंट का छपवाया हुआ, दिल्ली की पर्यटक जानकारी देने वाला ब्रोशर निकाला। और अपनी बात को दोहराया, ‘तो फिर भला इसमें तुम्हारा जि़क्र क्यों नहीं है?!’
‘मतलब’?
‘और सभी ऐतिहासिक खंडहरों का उल्लेख तो है इसमें...’
‘खंडहरों का ही उल्लेख है, इसीलिए तो...’
‘खंडहर में, सुनसान जगह में, शून्य में ही प्रतिध्वनि होती है न, साईं। मैं तुम में सिर्फ़ प्रतिध्वनि सुन रही हूँ। तुम्हारी असली आवाज़ कहाँ गुम हो गई है साईं?’

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मीर -  मीर टालपुर वंश, सिंध के आख़िरी स्थानीय शासक थे जिन्होंने ई. सन. 1783 से  1843  तक सिंध पर शासन किया. १८४३ में अंग्रेजों ने मियाणी के युद्ध में मीरों को हराकर सिंध पर कब्ज़ा किया था. 
कुबा - मक़बरा

अनुवाद : विम्मी सदारंगानी 

गुनो सामताणी (भारत) - सुप्रसिद्ध सिंधी लेखक। जन्म 14 जुलाई 1933 हैदराबाद सिन्ध में। देहांत 16 अगस्त 1996, मुंबई में। सिन्धी कहानी को संवेदनशील रूप देने में मुख्य भूमिका। अधिक नहीं, उमदा रचनाएं। तीन प्रकाशित पुस्तकें - ‘वापस’ (उपन्यास), ‘अपराजिता’ और ‘अभिमान’ (कहानी संग्रह)। प्रथम पुस्तक ‘अपराजिता’ पर 1972 का साहित्य अकादमी पुरस्कार। 



2 comments:

  1. Accha lagata hai ,Sindh se related kuch bhi padne ko mil jaaye ,ham logo ki ruhe hi dar badar ho gayi!!!

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    1. Shukriya.. kya kahuN ki dard kuch kum ho..

      Sindh khe kona chhadaaye ko saghe Sindhiyun khaaN,
      Sindh sindhiyun mei vase, Sindh hite, Sindh hute..
      (Narayan Shyam)

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