किशिनचंद 'बेवस' और उस्ताद नवाज़ अली 'न्याज़' को अपना गुरु मानने वाले हरी दिलगीर की कविता सुखदर्सी कविता है. वे कहते हैं, 'मुझे ज़िन्दगी अच्छी लगती है.. मैं हँसते हँसते जीना चाहता हूँ. हँस हँस कर जी रहा हूँ. हँसते हँसते जीना मेरे लिए राह भी है और मंजिल भी... मैं ज़िन्दगी को उसके सुन्दर स्वरुप में देखना चाहता हूँ... हालांकि कुछ साहित्यकारों में मेरे इस नज़रिए का मजाक उड़ाया. कहा कि इस दुनिया में सिर्फ दुःख ही दुःख है, सुख कुछ गिने चुने लोगों की विरासत है.. मुझे वाद विवाद पसंद नहीं, इसलिए वाद विवाद कर भी नहीं पाता... ऐसा नहीं है कि मेरी हर कविता में आशा और उजाले की चमक है. कहीं कहीं निराशा की झलक भी है, अलबता वह झलक झीनी है. पर जो भी लिखा है, उस में सच्चाई है. बिलकुल ईमानदारी से लिखा है..''
महफ़िल : हरि दरयानी 'दिलगीर'
कई आते हैं मिलने मुझसे
मेरे घर रोज़ रोज़ महफ़िल है.
मैं किसी से मिलने जाऊं
यह मेरे लिए ज़रूरी नहीं,
मेरे घर रोज़ नाच मीरा का
भजन सूरदास के, और दोहे कबीर,
वाल्ट विटमन, ख़लील और ख़य्याम
शाह, टैगोर और सचल
सभी आ जाते हैं मेरे बुलावे पर,
अपने ख़यालों की ख़ुश्बू से
महका देते हैं मुझे भी..
मैं भला क्यों किसी के घर जाऊं ?
(अनुवाद : विम्मी सदारंगानी)
(हरि दिलगीर जी के काव्य संग्रह 'पल पल जो परलाउ' १९७७ से)
Majo aachi viyo aahe!!!Simsim nalo dado mast aaye!!tahen ke ghani ghani wadhiyoon jo tahan panji boli ke sabin wat share karo tha!!!
ReplyDeletemahirbani Ideal Thinker.. sutho lago ta awhan Sindhi adab parho tha ain pasand bi karyo tha..
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